
शीश पगा न झगा तन पे, प्रभु जान्हे के आये बसे की ग्रामा ।
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पाये उपनाह को नहीं समां ॥
द्वार खड़ो निज दुर्बल एक, रह्यो चकी सो वसुधा अभिरामा ।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा ॥
नाम सुदामा का सुनते ही पग, आसन धाय द्वार की ओरा !
मुकुट कही तो कही पट उलझा, मिलने को व्याकुल दीन न खोना !
ऐसी उतावली है गति में जैसे वावली वायु का मध्य चकोरा !
मित्र से भेंट को मित्र चलो जो खावत चाँद की ओर चकोरा !
कोतुहल धर एही कृष्ण सब देख रहे !
सुद बुध खोके कृष्ण दोड़े कहाँ जाते है !
उड़ के चले है पीछे मुडके न देंखे लीला !
देखने वाले तो कुछ समझ नहीं पाते है !
गिरते है पड़ते है फिर उठ चलते है !
द्वारपालों कभी दासियों से टकराते है !
कौन ये महत्वपूर्ण आ गया है द्वार पे !
कि अगुवानी करने को ऐसे अकुलाते है !
दीनों के बंधू करुना के सिन्धु, लेकर नैनों में जल बिंदु !
सारे नातों से बडके एक नेह का नाता निभाने चले है !
भ्रमण करे जो फूलों के रथ पे चलके पथरीले पथ पे !
नंगे पाओं जो आया उसको नंगे पाओं बुलाने चले है !
दर्शन क़ी अभिलाषा खोके जगत हसाई से व्याकुल होके !
आस के टुकड़े सुदामा संजोके अश्रु में जीवन डुवाने चले है !
प्रेम परीक्षा क़ी घडी आई मित्र के नाम क़ी हो न हसाई !
मित्र परायण कृष्ण कन्हाई रूठा मित्र मानाने चले है !
वर्षों के बिछुड़े दो मीत आज सम्मुख है !
नेनों में दर्शनों क़ी याचना पवित्र है !
मिलने को ललक भी है मिलने में छिछ्क भी है !
ग्वाल बनके साथियों क़ी दशा कुछ विचित्र है !
दोनों के नेनों में आशुओं के मोती है !
मोतियों में बालपन क़ी मित्रता का चित्र है !
छोटा बड़ा ऊंच नीच रजा रंक कोई नहीं !
प्रेम क़ी धरा पे मित्र केवल एक मित्र है !
भारत माँ का चरण सेवक
- प्रतीक गुप्ता